मंगलवार, 31 अगस्त 2010
जीवन कि लय में नाचते नाचते कब पैर रुक जाए कुछ पता नहीं।
थिरकती साँसे , धडकती धड़कन , कब थम जाए कुछ पता नहीं।
आज सुबह ११ बजे , मेरे बड़े चचेरे भाई का मासूम सा बेटा , जिसने अभी सोलवां साल भी पार नहीं किया था, ट्रेन हादसे में अपनी जान गवां बैठा। इतना वक़्त भी नहीं मिला , कि उसकी जान कि दुवा भी मांग पता। इस दर्द को समेट कर अपने अन्दर दबाये रखना मुश्किल हो गया तो लिख रहा हूँ। और सोच रहा हूँ , इंसान आखिर हर हाल में जी ही लेता है। एक बार कहीं पढ़ा था, जीवन नहीं रुकता , मेरे और आपके रुकने से क्या होता है। ये मृत्यु हमारे जीवन का आधार है। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे... जनता हूँ ये न मौसम अब रहेगा देर तक , हर घड़ी मेरा बुलावा आ रहा। ये जीवन हमेशा नहीं रहने वाला। हर जाती सांस के साथ मौत का बुलावा आ रहा है। कब , कहाँ , कैसे पता नहीं। ये दुःख जीवन के अनुराग को कम करता है। मीरा कि कहानी हमने आपने सबने सुनी है। मीरा के जीवन में बचपन से जो मौत का सिलसिला चला वो उनके पति कि मौत पर आकर रुका। कहते हैं, अपनों के खोने का दर्द समेटे मीरा , सोचती थी। जीवन का अंत यही है तो फिर इस जीवन का क्या माने? क्यूँ इस मौत कि मोहताज़ ज़िन्दगी के लिए इतनी मारा मारी। मीरा को दीवानी बनाने के पीछे सिर्फ क्रिशन कि मूर्ति वाली घटना वजह नहीं थी... उसके पीछे इस मृत्यु के सत्य का ज्ञान भी था। मीरा को जो भी प्रिय था , खो गया। मृत्यु उसे ले गयी। और मेरा को जीवन का सार समझ में आ गया। उसे समझ आ गया, कि जीवन क्षड़भंगुर है, उसे शाशवत कि तलाश करनी होगी। इस मृत्यु ने उसे प्रेम का असली मतलब समझाया । माँ में , पिता में, भाई , बहन, संगी साथी , पति सब में उससे प्रेम मिला , लेकिन उस प्रेम को एक दिन मृत्यु निगल जाने वाली थी। उसे इस सत्य का अनुभव हुआ और वो विरत प्रेम , शाशवत प्रेम कि खोज में निकल पड़ी।
मैं बहुत दुखी हूँ। मुझे उस बच्चे कि शक्ल भी याद नहीं है। उसे देखे ७ साल हो चुके हैं। मेरे भाई का परिवार नेपाल में रहता है। ७ साल पहले उसे देखा था, जब उन से मिलने गया था। जीवन कि आप धापी में वक़्त ही नहीं मिला , कि कभी चाचा बनके उसे कंधे पे खिलाता। लिखते हुए आँखें भर आती हैं। हम पढ़े लिखे काम में मगन लोगों को लगता ही नहीं जीवन समाप्ति कि तरफ बाधा जा रहा है। मोबाइल पे बात कर लेते हैं और ऐसा फील करने लगते हैं , कि कितने पास हैं... अरे अगली फलाईट से पहुँच जायेंगे... कौन सा दूर है। पैसे ने कितना बादल दिया है हमे। अब अगली फलाईट पकड़ कर क्या करने जायुं ? उससे कन्धा देने? सोचता था, वक़्त निकाल कर कल जाऊंगा..कल जाऊंगा... इस कल कल के चक्कर में हम भूल जाते हैं..काल करीब आता जा रहा है... कब किसे कहाँ , कैसे ले जायेगा पता नहीं... पता नहीं क्या क्या लिख रहा हूँ.................
शनिवार, 28 अगस्त 2010
मेरा सम्मान
लेकिन आज सत्ता में मेरा शाशन है ।
आज राजा –रानी मेरे हैं ..मेरा ही दीवान है ।
मेरे रहनुमा करेंगे अब मेरा सम्मान
बनेगी भीमकाय मूर्तियाँ .
सजेंगी बगीचों में जल की फुलझड़ियाँ
मेरा होगा सम्मान ..बढेगा मेरा मान .
छब्बीस रुपये भी दिन में नहीं कम पता मैं ..
लेकिन छब्बीस सौ करोड़ से मेरा होगा सम्मान .
हे भारत के संविधान के रक्ष्सको ..क्यूँ रोकते हो तुम
हो जाने दो मेरा सम्मान …
मैं चाहता हूँ , मैं रहूँ या न रहूँ ..
कायम रहे इन् शिलायों में मेरी पहचान ..
बहुत ज़रूरी है बनी रहे मेरी पहचान
मेरी नस्लों को दुःख सहने की ताक़त मिलती है …
उन्हें होसला मिलता है , हो जाने को कुर्बान .
ताजमहल मुमताज़ की याद में बनाया गया था सब जानते हैं ॥
लेकिन मेरे बच्चे उससे अपने पूर्वजों के कटे हाथों का प्रतिक मानते हैं .
एक और प्रतीक बन जाने दो .. बनी रहेगी मेरी पहचान .
मैं चाहता हूँ, मेरे शोषण की कहानी जिंदा रहे
मुझ पर हुए अत्याचार का बन जाने दो निशान
मेरे उत्थान के नाम पर ये सम्मान ..
जान ले दुनिया मेरे नेता हैं महान .
जिन्हें पता नहीं मुझे ये सम्मान नहीं ...चाहिए दो मुठी अन्न का दान .
उन्हें पता नहीं …भूख से व्याकुल मेरे टंगे हैं प्राण .
झोपड़े में जलता हूँ -भीगता हूँ , नहीं है एक माकन .
क़र्ज़ में डूबा हूँ , बेटी हो गयी है जवान .
बाप बिना इलाज़ के मर गया …माँ पर भी बीमारियाँ है मेहरबान .
मेरे उठान का वादा करने कितने आये …
और शोषण कर के चले गए ॥
लेकिन मेरे अपने मेरे सम्मान के नाम पर
बना रहे हैं मेरे शोषण का निशान .
जनता हूँ , मेरी दर्दनाक आवाज़ दबा दी जाएगी
अख़बार के पन्नो से चाय की प्याली के साथ मिटा दी जाएगी
मेरे नाम पर शीश महल बनवाने वालों ..
कभी सोचा है ..उस महल को देखने आने के लिए
मेरी जेब में किराये भी नहीं हैं ..
होते तो बरोसों से इंतज़ार करती बहन को देख आया होता .
लेकिन जान लो …तुम चैन की सांस नहीं ले पाओगे एक पल भी उस आलीशान नुमाईश का …
देखना वहां … उन् मूर्तियों में
तुम्हे मेरे पसीने , मेरे लहू के मिलेंगे निशान …
एक एक पत्थर में नज़र आएगा तुम्हे
मेरी बेटी के शादी के पैसे
मेरे बेटे की पढाई के पैसे
मेरी माँ की दवाई के पैसे
और मेरी कफ़न की बू आएगी ..तुम देखना मेरी शान …
चल मंगरुया …हल उठा … जोते बोयें ..करम करें …बाकी सब जाने राम जी …
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
बुधवार, 25 अगस्त 2010
महिला आरक्षण - आधुनिक नारी की योग्यता पर प्रश्नचिंह
आज के दौर में जहाँ नारी पुरुष से कंधे से कन्धा मिला के चल रही है। हर जगह बराबर की भागीदारी निभा रही है। कोई भी क्षेत्र नारी से अझुता नहीं रहा गया। ऐसे दौर में पढ़ी लिखीं महिलायों द्वारा आरक्षण का नारा लगाना बचकानी हरकत लगती है। जो आधुनिक नारी की योग्यता पर प्रश्नचिंह लगता है । क्या अपने आपको आधुनिक कहने वाली नारी को इतना भी ज्ञान नहीं , कि जो वो कर्म से हासिल नहीं कर सकती उसे आरक्षण हासिल करके क्या मिलेगा ? पुरुष और नारी में समानता का उसका दावा क्या हुआ? जिसके लिए वो एवरेस्ट पर भी चढ़ गयी। कहाँ गया वो स्वाभिमान? क्या उसे ये बताना पड़ेगा कि हक मांगने से नहीं मिलता, उसके काबिल बनना पड़ता है।
न मैं नारीवादी हूँ, ना मेरे अन्दर नर होने का घमंड है । "मैं " में नहीं "हम " में विश्वाश करने वाला जीव हूँ। मैं नारी विरोधी नहीं हूँ , लेकिन नारी के इस दृष्टीकोण का विरोधी हूँ , मैं आरक्षण से विरोधी हूँ। नारी का आरक्षणवादी दृष्टीकोण यह साबित करता है कि वह पुरुष कि बराबरी करने कि दौड़ में मात्र डॉक्टर , इंजिनियर , वकील ही बनकर रह गयी है। उसने उस स्वभाव को नहीं पाया जो पुरुष के स्वाभिमान और घमंड का कारण रहा है। इतिहास के पन्ने गवाही देते हैं कि बिना क़ाबलियत के चाहे वो पुरुष हो या स्त्री कुछ भी हासिल करने क उसे कोई फ़ायदा नहीं हुआ । भारतीय इतिहास में आरक्षण कि मांग करने वाली महिलायों को ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे , जिसे जान कर वो सोचने को मजबूर हो जाएँगी। इन्द्रा गाँधी ही अगर पढ़ी लिखी स्वतंत्र न होतीं तो परिवारवाद और उनका खानदानी रुतबा उन्हें राजनीती में लेन में कामयाब तो हो जाता , लेकिन क्या वो एक मिशाल बन पातीं ? नहीं। राजनीतिज्ञों के हाथों कि कठपुतली मात्र बनी रहती , जैसे बिहार में सीधी- सादी रव्दी देवी थीं। बस एक रबर स्टंप । आरक्षण से महिलायों कि ताजपोशी तो हो जाएगी। किन्तु बाकी खेल वजीरों का होगा। ठीक वैसे ही जैसे किसी सरकारी ऑफिसर कि पत्नी उसके कंपनी कि नाम मात्र कि डिरेक्टर होती है। इसलिए मैं गुज़ारिश करता हूँ कि वो अपनी सोच को बदले, शिक्षा में आरक्षण मांगो, पढो लिखो , सोच को बदलो। स्वतंत्रता हासिल करो, ताकि मानसिक विकास हो। साड़ी उतार कर पतलून पहन लेने से सोच नहीं बदलती । हक नहीं मिलता। सोच बदलेगी, क़ाबलियत आएगी, तो हक कोई रोक नहीं सकता । पहले नारी को काबिल बनना होगा। वो अपना हक खुद हासिल कर लेगी। शक्ति को दिशा मिल जाए तो मंजिल खुद मिल जाएगी। उससे सत्ता नहीं शिक्षा कि ज़रूरत है, कुर्सी नहीं, कलम कि आवश्कता है। स्वतंत्रता कि ज़रूरत है। आरक्षण के नाम पर उससे पता भी नहीं , कि उस के साथ कैसा खेल खेला जा रहा है। आप जान कर चौक जायेंगे , कि बहुत से प्रान्तों में जो सीटें महिलायों के लिए घोषित कर दी गयी , उन सीटों पर विधायको और मंत्रियों ने अपनी पत्नियों को खड़ा कर दिया । किसी गरीब होनहार स्त्री को सीट नहीं मिली। ऐसे आरक्षण क क्या फ़ायदा ? मजे कि एक और बात, बहुत से ऐसे विधायक और मंत्री शादीसुदा नहीं थे और एकांकी जीवन में खुश थे , एक रिपोट के हिसाब से उन्होंने शादी क फैसला कर लिया , सिर्फ इसलिए की सीट उनके पास रहेगी, पत्नी क नाम ही तो होगा। अब जब ये हाल है तोह आप अंदाज़ा लगा सकते हैं, की गरीब होनहार महिलायों के साथ क्या न्याय होगा? जाके गोनों में देखिये महिलाएं नाम के लिए मुखिया , सरपंच हैं। सत्ता पर पुरुषों क ही अधिकार है। आरक्षण के नाम पर उसे हक चाहिए तो पुरषों की बराबरी का हक उसे कभी नहीं मिल पायेगा। नारी को अपना हक अपने दम पर हासिल करने की सोचनी चाहिए। आरक्षण कमजोरी की निशानी है। और क्षेत्र की तरह यहाँ भी अपनी लगन और प्रतिभा के बल पर अपना स्थान बनाना होगा। नहीं तो आरक्षण के नाम पर उसे कुर्सी मिलेगी बस। वो ऐसे ही नाम की मंत्री और नेता रह जाएगी , जैसे शादी के बाद मुना- मुन्नी की अमा और सास ससुर की बहु बनकर अपना नाम भी खो देती है। भारत की नारी , दुनिया की सर्वश्रेष्ठ नारी बन सकती है। अगर वो शिक्षित हो, स्वतन्त्र हो। उदार हो । अन्यथा आरक्षण से मिला अधिकार उससे अंधकार में ही ले जायेगा। उसे अभी सोचना होगा। उसे आगे आकर पहल करने की ज़रूरत है। उसे मांगने की ज़रूरत नहीं है। उसे अपनी क़ाबलियत से हासिल कर के अपनी आधुनिक छवि को , अपनी शक्ति को सिद्ध करना होगा। अन्यथा आरक्षण आधुनिक नारी की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह होगा।
मेरी जहिनियत को मेरी मासूमियत पे हंसी आती है.
मैं कितना जज्बाती और मासूम हुआ करता था।
उन दिनों जब कड़कती सर्दी में रजाई ओढ़ते ही सोचता था,
इस रजाई को सर्दी से कौन बचाएगा?
उसी उलझन में उलझे , मैं नींद की आगोश में चला जाता था ।
शेर , हाथी , भालू , बन्दर , घर ,कलम , किताब .
हर रात तमाम खिलोनो को आपस में समेट कर चिपका के रखता था।
ये सोच कर कहीं उन्हें डर न लगे ।
मेरी ये बातें जान कर दुनिया , मुझे पागल, सरफिरा कह सकती है।
कोई मनोवैज्ञानिक इसे बीमारी करार दे सकता है।
लेकिन मैं इसे संवेदनशील हिर्दय की मासूमियत मानता हूँ।
वो मासूमियत , जो जवान हो गयी है।
अब मैं खिलोनो को नहीं समेटता ।
बिखरे जज्बातों को बटोरता हूँ।
टूटे दिलों को जोड़ता हूँ।
रिश्तों की दरारें भरता हूँ।
लेकिन ये उतना ही मुश्किल है,
जितना वो सब आसन हुआ करता था।
बेजान खिलोने एक जगह रह जाते थे।
लेकिन इन्सान प्यार से क्यूँ नहीं रहता?
आज भी जब मैं वैसी कोशिश करता हूँ ,
तो मेरी जहिनियत को मेरी मासूमियत पे हंसी आती है।
मंगलवार, 24 अगस्त 2010
निर्वाण की ओर
मैं इस जग से बेआश हुआ।
सब स्वप्न- बिज हैं भस्म हुए।
जब प्रेम अग्नि का रास हुआ ।
मुक्ति द्वार पर खड़ा हुआ मैं,
देख रहा उस चेतन को।
जो उदय अस्त होता नहीं,
उस सूरज का प्रकाश हुआ।
जीवन मृत्यु का भेद मिटा
मैं चलती फिरती लाश हुआ।
विश्राम की बेला निकट हुयी
निज रूप मेरा निवास हुआ ।
मेरा जीवन दरिया जैसा
नहीं यहाँ परवाह किसी की,अपना रास्ता आप बनाये।
जिसकी जितनी प्यास हो , वो उतना पानी ले जाए।
मैं नहीं रोकने वाला , जो चाहे सो प्यास बुझाये।
जब घट जाएगा पानी, मालूम है मुझको।
बादल बरस बरस कर मुझको भर जाएँ।
मेरा काम है, प्यास बुझाना और आगे बढ़ते ही जाना।
जब तक सागर न आ जाये।
मेरी कोई नहीं है सीमा , नहीं कोई बंधन मेरा ।
मेरा मकसद एक ही बस , एक दिन सागर में खो जाएँ।
जनम मेरा हिमसागर से जो बस्ता शिखरों के ऊपर ।
मिलन फिर उसी सागर में , जो बस्ता पाताल में जाकर।
एक हिम है, एक तरल है, एक कठिन है, एक सरल है।
रूप अलग है , भेद एक है।
सबको ये लेकिन समझ न आये।
मैं नहीं किसी का लेकिन , देखो ये दस्तूर यहाँ का ।
सब बांधें मुझको यहाँ पर, अपना अपना हक जमायें।
पत्थर और पहाड़ों में, सूखे में हरियाली में, घाटी में मैदानों में।
बस्ती में देहातों में , तीरथ में विरानो में , जंगल में शमशानों में।
जहाँ जहाँ से मैं गुज़रा हूँ। मैंने खूब ये जान लिया है।
रोक नहीं पायेगा कोई, जब तक सागर न आ जाये।
देखो तुम शिखरों में जाकर , मैं हूँ कितना पवित्र वहां पर।
और शहरों - गाँवों में देखो , मुझसा नहीं अझूत वहां पर।
लेकिन सागर से मिलते ही, कौन जाने मैं हूँ कहाँ पर।
बस तब तक मुझ में दोष - गुण है, जब तक सागर न मिल जाए।
अपने घर से निकल के देखो, मैं क्या से क्या हुआ हूँ।
कहीं पे अच्छा कहीं बुरा हूँ।
जिसकी जैसी नज़र यहाँ पर , उसके खातिर मैं वही हूँ।
लेकिन मुझको सत्य पता है, मैं असली में वो नहीं हूँ।
मान अपमान मिलता रहेगा, ऐसा तो होता रहेगा।
जब तक मेरा घर ना आ जाए।
ये शोखियाँ , अदाएं , ये जो मोहब्तों के जाम हैं ।
ये सलीका है जहान का , यहाँ सबके पीछे काम है।
मैंने कुछ किया नहीं, पर शोहरत मेरी हो गयी।
ये राज तू भी जान ले, इसके पीछे तेरा नाम है।
सौदागर हैं सारे यहाँ, ये दुनिया एक बाज़ार है।
बिकती है हर शय यहाँ, सबका यहाँ पर दाम है।
एक खुदा का नूर है , मुझ में भी तुझ में भी ।
तू तू मैं मैं के लिए कहीं आल्हा , कहीं राम है।
साहित्य का हाल
रंगीन टीवी पर कम कपड़े पहने इतराती हेरोइन, कविता को अलमारी के कोने में दबा देती है।
सोमवार, 23 अगस्त 2010
अकेला ही सही
शनिवार, 21 अगस्त 2010
मौलाना रूमी
मौलाना रूमी की भी एक रुबाई थी जिस में लैला और मजनू का जिक्र था । अब यहाँ सवाल उठता है , लैला मजनू का किस्सा पुराना है या रूमी साहब का? खैर इतिहास में झाँक कर देखा नहीं। वैसे रुबाई बड़ी दिलचस्प है। लिखा है। एक खुमकड़ विद्वान लैला मजनू के प्रेम की कहानिया सुन कर लैला के पास आया। की आखिर लैला क्या बाला है, जो कैश (मजनू ) जैसा सुन्दर बांका जवान लैला पे कुर्बान है। आखिर ये हसीना है कौन? लेकिन जब लैला को देखा तोह , दंग रहा गया। कहते हैं, लैला बहुत खूबसूरत नहीं थी। वो लैला से बोला ।
कैश (मजनू ) को तुने कैसे परेशां किया , तू हसीनो में कोई अफजूं नहीं।
लैला बोली
खामोश तू मजनू नहीं ।
लिखा है लैला को देखने के लिए मजनू की आँखें चाहिए ।
रि मा इ न ड मी लेटर
जैसे ही कंप्यूटर खोला
मेसेज का बॉक्स खुला , मेसेज था
सॉफ्टवेर अपडेट करें , आपके ब्रॉडबैंड इन्टरनेट पे बस कुछ मिनट में हो जायेगा , कंप्यूटर रिस्टार्ट करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी ।
कुछ सोचा , याद आया , इन्टरनेट में बैलेंस नहीं है ..
फिर देखा , लिखा था , इन्स्टाल नाउ एंड रि मा इ न ड मी लेटर
दो आप्शन थे , रि मा इ न ड मी लेटर पे क्लिक कर दिया ।
बॉक्स बंद हो गया , ऐसा लगा , समस्या का समाधान हो गया .
अगर आप परेशानी में हो और आपको आप्शन मिल जाए ,
तो बड़ा रेलिएफ मिलता है . कुछ वक़्त के लिए ही सही ,
आदमी की आदत है , कल किसी उम्मीद में जी लेता है .
तभी बच्चा आ गया , बोला कंप्यूटर टीयु श अन की फीस भरनी है ।
कुछ सोचा , याद आया , बैंक में बैलेंस नहीं है .
फिर उसे देखा , कंप्यूटर की तरह उसकी आँखों में लिखा था .
अभी या कल याद दिलायुं .
दो आप्शन उसकी दोनों आँखों में इन्स्टाल नाउ और रि मा इ न ड मी लेटर की तरह बने बॉक्स साफ़ दिख रहे थे .
दिमाग जैसे सुन्न था , मूह से निकला , रि मा इ न ड मी लेटर।
वो चला गया , वैसे ही जैसे क्लिक करते ही कंप्यूटर में मेसेज बॉक्स बंद हो गया था ।
लेकिन मेरे दिमाग में गूंजता रहा , रि मा इ न ड मी लेटर।