(न मैं नारीवादी हूँ, ना मेरे अन्दर नर होने का घमंड है । "मैं " में नहीं "हम " में विश्वाश करने वाला जीव हूँ। मैं नारी विरोधी नहीं हूँ , लेकिन नारी के इस दृष्टीकोण का विरोधी हूँ , मैं आरक्षण विरोधी हूँ। )
आज के दौर में जहाँ नारी पुरुष से कंधे से कन्धा मिला के चल रही है। हर जगह बराबर की भागीदारी निभा रही है। कोई भी क्षेत्र नारी से अझुता नहीं रहा गया। ऐसे दौर में पढ़ी लिखीं महिलायों द्वारा आरक्षण का नारा लगाना बचकानी हरकत लगती है। जो आधुनिक नारी की योग्यता पर प्रश्नचिंह लगता है । क्या अपने आपको आधुनिक कहने वाली नारी को इतना भी ज्ञान नहीं , कि जो वो कर्म से हासिल नहीं कर सकती उसे आरक्षण हासिल करके क्या मिलेगा ? पुरुष और नारी में समानता का उसका दावा क्या हुआ? जिसके लिए वो एवरेस्ट पर भी चढ़ गयी। कहाँ गया वो स्वाभिमान? क्या उसे ये बताना पड़ेगा कि हक मांगने से नहीं मिलता, उसके काबिल बनना पड़ता है।
न मैं नारीवादी हूँ, ना मेरे अन्दर नर होने का घमंड है । "मैं " में नहीं "हम " में विश्वाश करने वाला जीव हूँ। मैं नारी विरोधी नहीं हूँ , लेकिन नारी के इस दृष्टीकोण का विरोधी हूँ , मैं आरक्षण से विरोधी हूँ। नारी का आरक्षणवादी दृष्टीकोण यह साबित करता है कि वह पुरुष कि बराबरी करने कि दौड़ में मात्र डॉक्टर , इंजिनियर , वकील ही बनकर रह गयी है। उसने उस स्वभाव को नहीं पाया जो पुरुष के स्वाभिमान और घमंड का कारण रहा है। इतिहास के पन्ने गवाही देते हैं कि बिना क़ाबलियत के चाहे वो पुरुष हो या स्त्री कुछ भी हासिल करने क उसे कोई फ़ायदा नहीं हुआ । भारतीय इतिहास में आरक्षण कि मांग करने वाली महिलायों को ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे , जिसे जान कर वो सोचने को मजबूर हो जाएँगी। इन्द्रा गाँधी ही अगर पढ़ी लिखी स्वतंत्र न होतीं तो परिवारवाद और उनका खानदानी रुतबा उन्हें राजनीती में लेन में कामयाब तो हो जाता , लेकिन क्या वो एक मिशाल बन पातीं ? नहीं। राजनीतिज्ञों के हाथों कि कठपुतली मात्र बनी रहती , जैसे बिहार में सीधी- सादी रव्दी देवी थीं। बस एक रबर स्टंप । आरक्षण से महिलायों कि ताजपोशी तो हो जाएगी। किन्तु बाकी खेल वजीरों का होगा। ठीक वैसे ही जैसे किसी सरकारी ऑफिसर कि पत्नी उसके कंपनी कि नाम मात्र कि डिरेक्टर होती है। इसलिए मैं गुज़ारिश करता हूँ कि वो अपनी सोच को बदले, शिक्षा में आरक्षण मांगो, पढो लिखो , सोच को बदलो। स्वतंत्रता हासिल करो, ताकि मानसिक विकास हो। साड़ी उतार कर पतलून पहन लेने से सोच नहीं बदलती । हक नहीं मिलता। सोच बदलेगी, क़ाबलियत आएगी, तो हक कोई रोक नहीं सकता । पहले नारी को काबिल बनना होगा। वो अपना हक खुद हासिल कर लेगी। शक्ति को दिशा मिल जाए तो मंजिल खुद मिल जाएगी। उससे सत्ता नहीं शिक्षा कि ज़रूरत है, कुर्सी नहीं, कलम कि आवश्कता है। स्वतंत्रता कि ज़रूरत है। आरक्षण के नाम पर उससे पता भी नहीं , कि उस के साथ कैसा खेल खेला जा रहा है। आप जान कर चौक जायेंगे , कि बहुत से प्रान्तों में जो सीटें महिलायों के लिए घोषित कर दी गयी , उन सीटों पर विधायको और मंत्रियों ने अपनी पत्नियों को खड़ा कर दिया । किसी गरीब होनहार स्त्री को सीट नहीं मिली। ऐसे आरक्षण क क्या फ़ायदा ? मजे कि एक और बात, बहुत से ऐसे विधायक और मंत्री शादीसुदा नहीं थे और एकांकी जीवन में खुश थे , एक रिपोट के हिसाब से उन्होंने शादी क फैसला कर लिया , सिर्फ इसलिए की सीट उनके पास रहेगी, पत्नी क नाम ही तो होगा। अब जब ये हाल है तोह आप अंदाज़ा लगा सकते हैं, की गरीब होनहार महिलायों के साथ क्या न्याय होगा? जाके गोनों में देखिये महिलाएं नाम के लिए मुखिया , सरपंच हैं। सत्ता पर पुरुषों क ही अधिकार है। आरक्षण के नाम पर उसे हक चाहिए तो पुरषों की बराबरी का हक उसे कभी नहीं मिल पायेगा। नारी को अपना हक अपने दम पर हासिल करने की सोचनी चाहिए। आरक्षण कमजोरी की निशानी है। और क्षेत्र की तरह यहाँ भी अपनी लगन और प्रतिभा के बल पर अपना स्थान बनाना होगा। नहीं तो आरक्षण के नाम पर उसे कुर्सी मिलेगी बस। वो ऐसे ही नाम की मंत्री और नेता रह जाएगी , जैसे शादी के बाद मुना- मुन्नी की अमा और सास ससुर की बहु बनकर अपना नाम भी खो देती है। भारत की नारी , दुनिया की सर्वश्रेष्ठ नारी बन सकती है। अगर वो शिक्षित हो, स्वतन्त्र हो। उदार हो । अन्यथा आरक्षण से मिला अधिकार उससे अंधकार में ही ले जायेगा। उसे अभी सोचना होगा। उसे आगे आकर पहल करने की ज़रूरत है। उसे मांगने की ज़रूरत नहीं है। उसे अपनी क़ाबलियत से हासिल कर के अपनी आधुनिक छवि को , अपनी शक्ति को सिद्ध करना होगा। अन्यथा आरक्षण आधुनिक नारी की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह होगा।
सच कहा आपने, काश आरक्षण की मांग करने वाले ये बात समझ पाते ।
जवाब देंहटाएंउन्हें अपनी रोटियां सकने से मतलब है , सच तोह ये हैं , नारी भी इस साजिस में शामिल है...
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