तपती दोपहर में दमकते सोने से गेहूं की ये बालियाँ ..
देखते ही एक अज्ञात आनंद का एहसास और उन्हें समेट लेने की आरज़ू
और फिर ..चलती दरांती ..टपकता पसीना . धुल फांकता जिश्म ..
दर्द से दुखता रोम - रोम ..पल पल बदलता मौसम ,
आसमान में बादल का टुकड़ा डर भर देता है
तेज होती हवा .. हाथ तेज चलने को मजबूर कर देती है .
पसीना बहता है .. थकान से चूर , फिर भी हाथ चलते हैं ..
कीमत देकर रोटी खाने वालों .. जिस दिन
अपने हाथ में दरांती उठा के फसल काटोगे ..
धुल फान्कोगे.. बादल – हवा देख के डरोगे..
धुप में जलोगे ..
उस दिन तुम जान पाओगे किसान क्या होता है ..रोटी की कीमत क्या है.
उस दिन समझ पाओगे मेरी कविता का मतलब .
उस दिन दे पाओगे किसान.. इस अन्न -दात्ता को सम्मान .
c@anand rathore
एकदम सही लिखा है ..... पर हम चेतें तो......
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