गुरुवार, 30 सितंबर 2010

अमन में मेरा हिंदुस्तान रहे

ना राम रहे न अलाह रहे।
जिनको रखना हो , वो अपने दिल में अपना भगवान रखें।
ये धरती है इंसानों की, यहाँ सिर्फ इन्सान रहे।
प्रेम का मजहब रहे, अमन में मेरा हिंदुस्तान रहे।

१९९२ से न तो वहां मंदिर हैं, न वहां मस्जिद है। हिंदुस्तान की अवाम को कोई फर्क नहीं पड़ा। इस दुनिया में अगर कहीं मंदिर , मस्जिद, गुरद्वारा, गिरजा घर न हो , तब भी इन्सान को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। फर्क तब पड़ता है, जब अमन चला जाता है। जब नफरत की हवा जहर घोलती है।

ढह जाएँ जब मासूमो के घर , तब मंदिर की नीव पड़े ।
माँ का दूध सूख जाए तब ईद की खीर बने ।

ऐसे मंदिर मस्जिद नहीं चाहिए हम इंसानों को ।

मंगलवार, 28 सितंबर 2010


ये फोटो विवेक अग्ग्निहोत्री जी ने अपने बिग ब्लॉग पर मीडिया की धुनाई करते हुयी लगायी है। न्यूज़ का स्तर क्या है अब आप समझ जायेंगे।

सोमवार, 27 सितंबर 2010

हम हैं अगर कल , तो देखो इसी पल, भारत का हमको भविष्य बताओ

ये मेरी फिल्म बोरीवली फास्ट का एक गीत है। अभी इसकी धुन और म्यूजिक तैयार हो रही है। जो गीत आप सुनेगे फाइनल नहीं है। अभी गायक भी फाईनल नहीं है । आप चाहें तो सुझाव दे सकते हैं। गीत के बोल बहुत से सवाल करते हैं... जिसका जवाब सबको सोचना होगा। presentation की क्लिप के साथ ये विडियो मैंने आप सब के लिए बना दी है। उम्मीद है आप सबको अच्छा लगेगा। आपके सुझाव आमंत्रित हैं।

सलामी


Everyone celebrates Birthday of Gandhi ji on 2nd Oct.

27th Sept 1907 is Birthday of Saheed Bhagat Singh

does anybody know that?

at least pass this message to everyone , let the real hero be respected.

रविवार, 26 सितंबर 2010

मैं कौन हूँ?

मैं कौन हूँ? मेरा अश्तितव क्या है?
ये सवाल कल भी था , जो आज है।
मैं खोजता हूँ , भला ये क्या राज है?
अजीब लगता है, दुनिया को जानने वाला इंसान
खुद से क्यूँ अनजान है?

मैं खोजता हूँ , खुद को धरती में , आकाश में।
ज़रे ज़रे में पातळ में।
मैं खोजता हूँ खुद को
इस शारीर के मकान में ।

मैं अजन्मा था तो कैसा था - क्या था?
मेरा चेहरा , मेरा शारीर याद करता हूँ।
यात्रा शुरू होती है, खोज शुरू होती है।
माँ के पेट से पहले और माँ के पेट से लेकर आज तक ।
मगर मैं पहुँच न पाया इस राज तक।

इस खोजी अभियान में ,
सोचता हूँ परेशां मैं ।
फिर एक दिन मैं भी डूबा ध्यान में।
और जागने के क्रम में।
सत्य के सामने देखा ,हूँ अज्ञान मैं ।
धीरे धीरे जाग रहा हूँ। अधखुली आँखों से देख रहा हूँ।
अपने आप को जान रहा हूँ।
मेरा कोई नाम नहीं है।
कोई शारीर नहीं, कोई चेहरा नहीं।
मेरा कोई काम नहीं है।
जो मैं सबको दीखता हूँ ।
ये मेरी पहचान नहीं है।
मैं खुद को जहाँ पता हूँ , बस लगता है ,
मैं हूँ।
जो सुनता है इन कानो से ।
जो देखता है इन आँखों से।
मैं बस हूँ।
ये दिल ही है , जो हर गम झेल जाता है।
जो भी मिलता है, दिल से खेल जाता है।

कज़ा

आफताब आएगा तो तुम भी जान जाओगे।
शबनम हूँ मैं अपनी औकात जान गया हूँ।
रूह जब रोशन होती है ।
हजारों आफताब शर्मशार होते हैं।

उनको खोफे - रुसवाई नहीं हुआ करती।
जो अपनी नज़रों में इज्ज़तदार होते हैं।
अँधेरे कितने भी ताक़तवर क्यूँ न हों।
ज़रा सी रोशनी से मर जाते हैं।

पत्थर की मार से बच जाने वाले।
कभी कभी नाजुक फुल की मार से मर जाते हैं।
ठहरा हुआ हो आँखों में सागर तो कभी देखना।
किश्तियाँ डूबी हैं कितनी , लहरों के तूफ़ान में ।

जब कोई मरता है ख्वाब , तो लगता है यूँ ।
जल रही है ज़िन्दगी, जैसे शमशान में ।

घर बनाना भूल गए लोग अब जहाँ में।
रहने लगे है बस अब माकन में।

दीवाना आ गया

गमो को करना नगमा , और गुनगुनाना आ गया।
हर हाल में मुझको मुस्कुराना आ गया ।

ऐसी खुदा कि मुझ पे मेहर हो गयी ।
अपने आप में मुझको सामना आ गया।

अब तो अपनी मैकशी का ये हाल है ।
देखते ही लोग कहते हैं, दीवाना आ गया।

शनिवार, 11 सितंबर 2010

11 September 1893 Parliament of World's Religions

The Parliament of Religions opened on 11 September 1893 at the Art Institute of Chicago. On this day Vivekananda gave his first brief address. He represented India and Hinduism.Though initially nervous, he bowed to Saraswati, the goddess of learning and began his speech with, "Sisters and brothers of America!".To these words he got a standing ovation from a crowd of seven thousand, which lasted for two minutes. When silence was restored he began his address. He greeted the youngest of the nations in the name of "the most ancient order of monks in the world, the Vedic order of sannyasins, a religion which has taught the world both tolerance and universal acceptance." And he quoted two illustrative passages in this relation, from the Bhagavad Gita—"As the different streams having their sources in different places all mingle their water in the sea, so, O Lord, the different paths which men take, through different tendencies, various though they appear, crooked or straight, all lead to Thee!" and "Whosoever comes to Me, through whatsoever form, I reach him; all men are struggling through paths that in the end lead to Me."Despite being a short speech, it voiced the spirit of the Parliament and its sense of universality.
Dr. Barrows, the president of the Parliament said, "India, the Mother of religions was represented by Swami Vivekananda, the Orange-monk who exercised the most wonderful influence over his auditors." He attracted widespread attention in the press, which dubbed him as the "Cyclonic monk from India".

The New York Critique wrote, "He is an orator by divine right, and his strong, intelligent face in its picturesque setting of yellow and orange was hardly less interesting than those earnest words, and the rich, rhythmical utterance he gave them." The New York Herald wrote, "Vivekananda is undoubtedly the greatest figure in the Parliament of Religions. After hearing him we feel how foolish it is to send missionaries to this learned nation."

The American newspapers reported Swami Vivekananda as "the greatest figure in the parliament of religions" and "the most popular and influential man in the parliament".

He spoke several more times at the Parliament on topics related to Hinduism and Buddhism. The parliament ended on 27 September 1893. All his speeches at the Parliament had one common theme—Universality—and stressed religious tolerance.

Regards

11 September 1893 Parliament of World's Religions