रविवार, 26 सितंबर 2010

ठहरा हुआ हो आँखों में सागर तो कभी देखना।
किश्तियाँ डूबी हैं कितनी , लहरों के तूफ़ान में ।

जब कोई मरता है ख्वाब , तो लगता है यूँ ।
जल रही है ज़िन्दगी, जैसे शमशान में ।

घर बनाना भूल गए लोग अब जहाँ में।
रहने लगे है बस अब माकन में।

4 टिप्‍पणियां:

  1. पंक्तियाँ सुन्दर हैं , कुछ जलने की बू भी आ रही है ,
    थोड़ा और बढ़ाओ , लिखते लिखते उम्र के साथ साथ आप और अच्छा लिखने लग जाओगे ।
    रहने लगे है बस अब माकन में।
    की जगह अगर ' रहने लगे हैं बस, दीवारों से घिरे मकान में ' लिखें तो ?

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  2. शुक्रिया.. आप के सुझाव के लिए आभारी हूँ. कोशिश करूँगा कि और अच्चा लिखूं.

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  3. खूबसूरत लिखा है ..दो शेर और जोडते तो मुक्कमल गज़ल हो जाती

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  4. शुक्रिया.. अगली बार कोशिश करूँगा.. दरसल बात ये है.. मैं जब भी लिखता हूँ, ये सोच कर नही कि ग़ज़ल या कविता लिख रहा हूँ.. राह चलते..जागते- सोते ..कभी भी कहीं भी , जैसा एहसास होता है..तजुर्बा होता है लिख देता हूँ.. इसलिए शायद ऐसा होता है...

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