रविवार, 26 सितंबर 2010

मैं कौन हूँ?

मैं कौन हूँ? मेरा अश्तितव क्या है?
ये सवाल कल भी था , जो आज है।
मैं खोजता हूँ , भला ये क्या राज है?
अजीब लगता है, दुनिया को जानने वाला इंसान
खुद से क्यूँ अनजान है?

मैं खोजता हूँ , खुद को धरती में , आकाश में।
ज़रे ज़रे में पातळ में।
मैं खोजता हूँ खुद को
इस शारीर के मकान में ।

मैं अजन्मा था तो कैसा था - क्या था?
मेरा चेहरा , मेरा शारीर याद करता हूँ।
यात्रा शुरू होती है, खोज शुरू होती है।
माँ के पेट से पहले और माँ के पेट से लेकर आज तक ।
मगर मैं पहुँच न पाया इस राज तक।

इस खोजी अभियान में ,
सोचता हूँ परेशां मैं ।
फिर एक दिन मैं भी डूबा ध्यान में।
और जागने के क्रम में।
सत्य के सामने देखा ,हूँ अज्ञान मैं ।
धीरे धीरे जाग रहा हूँ। अधखुली आँखों से देख रहा हूँ।
अपने आप को जान रहा हूँ।
मेरा कोई नाम नहीं है।
कोई शारीर नहीं, कोई चेहरा नहीं।
मेरा कोई काम नहीं है।
जो मैं सबको दीखता हूँ ।
ये मेरी पहचान नहीं है।
मैं खुद को जहाँ पता हूँ , बस लगता है ,
मैं हूँ।
जो सुनता है इन कानो से ।
जो देखता है इन आँखों से।
मैं बस हूँ।

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