बुधवार, 25 अगस्त 2010

मेरी जहिनियत को मेरी मासूमियत पे हंसी आती है.

मेरी जहिनियत को अपनी मासूमियत पे हंसी आती है।
मैं कितना जज्बाती और मासूम हुआ करता था।
उन दिनों जब कड़कती सर्दी में रजाई ओढ़ते ही सोचता था,
इस रजाई को सर्दी से कौन बचाएगा?
उसी उलझन में उलझे , मैं नींद की आगोश में चला जाता था ।

शेर , हाथी , भालू , बन्दर , घर ,कलम , किताब .
हर रात तमाम खिलोनो को आपस में समेट कर चिपका के रखता था।
ये सोच कर कहीं उन्हें डर न लगे ।

मेरी ये बातें जान कर दुनिया , मुझे पागल, सरफिरा कह सकती है।
कोई मनोवैज्ञानिक इसे बीमारी करार दे सकता है।
लेकिन मैं इसे संवेदनशील हिर्दय की मासूमियत मानता हूँ।

वो मासूमियत , जो जवान हो गयी है।
अब मैं खिलोनो को नहीं समेटता ।
बिखरे जज्बातों को बटोरता हूँ।
टूटे दिलों को जोड़ता हूँ।
रिश्तों की दरारें भरता हूँ।
लेकिन ये उतना ही मुश्किल है,
जितना वो सब आसन हुआ करता था।
बेजान खिलोने एक जगह रह जाते थे।
लेकिन इन्सान प्यार से क्यूँ नहीं रहता?

आज भी जब मैं वैसी कोशिश करता हूँ ,
तो मेरी जहिनियत को मेरी मासूमियत पे हंसी आती है।

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