मंगलवार, 24 अगस्त 2010

मेरा जीवन दरिया जैसा

मेरा जीवन दरिया जैसा बहता जाए।
नहीं यहाँ परवाह किसी की,अपना रास्ता आप बनाये।

जिसकी जितनी प्यास हो , वो उतना पानी ले जाए।
मैं नहीं रोकने वाला , जो चाहे सो प्यास बुझाये।

जब घट जाएगा पानी, मालूम है मुझको।
बादल बरस बरस कर मुझको भर जाएँ।

मेरा काम है, प्यास बुझाना और आगे बढ़ते ही जाना।
जब तक सागर न आ जाये।

मेरी कोई नहीं है सीमा , नहीं कोई बंधन मेरा ।
मेरा मकसद एक ही बस , एक दिन सागर में खो जाएँ।

जनम मेरा हिमसागर से जो बस्ता शिखरों के ऊपर ।
मिलन फिर उसी सागर में , जो बस्ता पाताल में जाकर।
एक हिम है, एक तरल है, एक कठिन है, एक सरल है।
रूप अलग है , भेद एक है।
सबको ये लेकिन समझ न आये।

मैं नहीं किसी का लेकिन , देखो ये दस्तूर यहाँ का ।
सब बांधें मुझको यहाँ पर, अपना अपना हक जमायें।

पत्थर और पहाड़ों में, सूखे में हरियाली में, घाटी में मैदानों में।
बस्ती में देहातों में , तीरथ में विरानो में , जंगल में शमशानों में।
जहाँ जहाँ से मैं गुज़रा हूँ। मैंने खूब ये जान लिया है।
रोक नहीं पायेगा कोई, जब तक सागर न आ जाये।

देखो तुम शिखरों में जाकर , मैं हूँ कितना पवित्र वहां पर।
और शहरों - गाँवों में देखो , मुझसा नहीं अझूत वहां पर।
लेकिन सागर से मिलते ही, कौन जाने मैं हूँ कहाँ पर।
बस तब तक मुझ में दोष - गुण है, जब तक सागर न मिल जाए।

अपने घर से निकल के देखो, मैं क्या से क्या हुआ हूँ।
कहीं पे अच्छा कहीं बुरा हूँ।
जिसकी जैसी नज़र यहाँ पर , उसके खातिर मैं वही हूँ।
लेकिन मुझको सत्य पता है, मैं असली में वो नहीं हूँ।

मान अपमान मिलता रहेगा, ऐसा तो होता रहेगा।
जब तक मेरा घर ना आ जाए।

6 टिप्‍पणियां:

  1. देखो तुम शिखरों में जाकर , मैं हूँ कितना पवित्र वहां पर।
    और शहरों - गाँवों में देखो , मुझसा नहीं अझूत वहां पर।
    लेकिन सागर से मिलते ही, कौन जाने मैं हूँ कहाँ पर।
    बस तब तक मुझ में दोष - गुण है, जब तक सागर न मिल जाए।
    Sunder kawita. Apne jeewan ko behate dariya ki upma wah !

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  2. शुक्रिया !
    अभी नींद से जगा नहीं हूँ.. लेकिन आँखें खुल रही हैं.. और इस जागने के क्रम में सत्य को देख रहा हूँ.. सोते में संसार है.. जागे में संसार का सार है. कृपया इस कविता को आध्यात्मिकता की द्रिस्टी से समझे .

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