रविवार, 5 दिसंबर 2010

ढाई आखर प्रेम कहानी

मुस्कानों को तन पे लपेटे
हम फिरते हैं तनहा तनहा.
दर्द का तन दिख पाए कैसे?
बड़ी बड़ी तुम बातें करते
रिश्ते -नाते, कसमे -वादें
ढाई आखर प्रेम कहानी
हम तुमको समझाएं कैसे?

रविवार, 14 नवंबर 2010

दिन को चाँद रातों को सूरज ढूंढता हूँ.

कैसे कैसे ख्वाब लिए मैं इन सड़कों पे घूमता हूँ.
ज़मी पे कदम हैं मगर आसमां को चूमता हूँ .

कितना भी दुस्वार क्यूँ न हो काम वही करता हूँ.
दिन को चाँद रातों को सूरज ढूंढता हूँ.

नाकामयाब होता हूँ , लेकिन नाउमीद नहीं.
मेरे दिल में एक खुदा है, हर ठोकर पे उसे पूजता हूँ.

ज़िन्दगी से खफा हो के जाएँ कहाँ
कभी राजी , तो कभी इसी से रूठता हूँ.

ज़िन्दगी के कुछ प्याले ज़हर थे , अमृत समझ के पी गया।
अब न जीता हूँ , न मैं मारता हूँ.

सोमवार, 8 नवंबर 2010

रविवार, 7 नवंबर 2010

इस दिवाली पर बड़ा मजा आया

इस दिवाली पर बड़ा मजा आया
मैं पठाखे नहीं , एक सुंदर सी कलम ले आया था
दिए नहीं एक प्यारी सी डायरी ले आया था
कहीं नहीं गया, कोई मिठाई लाया था
दुनिया के सारे दरवाज़े बंद किये
ब्लॉग बंद , इमेल बंद, मोबाइल बंद, कमरा बंद
खुला रखा तो सिर्फ एक दरवाज़ा , दिल का दरवाज़ा
अँधेरे बंद कमरे में बैठा
डायरी का पहला पन्ना खोला
लिखा- रोशनी ...
जग मग रोशनी से सारा कमरा जगमगा उठा
टिमटिमाते दिए कमरे में इतराने लगे
फिर लिखा - मिठाई
मुह मिठास से भर आया
पकवान मन को लुभाने लगे
मेरी नजरो ने दरवाजों को इशारा किया
दरवाज़े खुले , तुम आये , वो आये, सब आये
खुशियों का आलम आया
सबको विदा किया , दरवाज़ा फिर बंद
मैं बाहर से सो गया, अन्दर से जाग गया
रूह रोशन हुयी , प्रेम का रास हुआ
राम की विजय हुयी , रावण को वनवास हुआ
जब कमरे से बाहर आया , मैं वो नहीं था, मैं बिलकुल नया
उस कमरे में मैं अपना दिल जला आया था
अब की दिवाली पे बड़ा मजा आया था

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

सब देख रहा हूँ

जो जैसा कर रहा है सब देख रहा हूँ।
किसकी नज़र में क्या है सब देख रहा हूँ।

वो हंस के बोलते हैं, ज़हर भी घोलते हैं।
उनके इरादे क्या हैं सब देख रहा हूँ।

पलकों पे कहीं ख्वाब सजते देख रहा हूँ।
आँखों में उमड़ते आंसू सब देख रहा हूँ।

बहती नदी की धार ,कहीं देख रहा हूँ ।
संजीदगी समंदर की सब देख रहा हूँ।

तेरी नज़र में क्या है , उसकी नज़र में क्या है।
मेरी नज़र में क्या , सब देख रहा हूँ।

कौन जीता है सुबह होने तक

शमा की उम्र होती है सुबह होने तक ।
परवाना जलता है सुबह होने तक।

जी भर के जी ले ज़िन्दगी तू रात भर ।
कौन जीता है सुबह होने तक।

यादों की बुनियाद पे महल न बनाया करो।
टूट जाता है अरमान सुबह होने तक ।

अपने दिल में एक घर सलामत रख लो
मकान नहीं बचते सुबह होने तक ।

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

मेरी आँखों में नमी रही गयी

मेरी आँखों में नमी रही गयी ।
ज़िन्दगी में तेरी कमी रह गयी।
आसमान तो बहुत बर्षा था
जाने क्यूँ बंजर ज़मी रह गयी।
सेहरे के फूल बहुत महंगे थे
बेटी की डोली सजी रह गयी।

जन्म दिन मुबारक हो।


हम मिले , पहचान हुयी , साथ काम किया और सब चले गए , लेकिन हमारा रिश्ता साल दर साल मजबूत होता गया। आपने मुझे जो मुकाम दिया उसके लिए शुक्रिया । जन्म दिन मुबारक हो।

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

हम हैं अगर कल , तो देखो इसी पल भारत का हमको भाविष्य बताओ

ब्लॉग मित्रो से अनुरोध है , की इस गीत को ज़रूर सुने और अपनी राय दें। राजस्थान के एक म्यूजिक डिरेक्टर को मैंने मौका दिया मेरे लिखे इस गीत को काम्पोस करने के लिए । अभी ये फायनल नहीं है और न ही किसी गायक ने गया है। जब सबकुछ फायनल हो जायेगा तो मैं आप सबको बताऊंगा कि ये गीत किसलिए तैयार हो रहा है। बुरा लगे , बुरा कहें, अच्छा लगे अच्छा कहें , लेकिन दिल से कहें मुझे अच्छा लगेगा।

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

फैसला

सपने कुछ अपने थे , कुछ अपनों के
हर सपना दुसरे के सपने की कुर्बानी मांगता था
मुझे फैसला करना था , किसका सम्मान करूँ ?
अपनी कोमल पाक ,तेरा मेरा से परे ज़ज्बातों का ?
या मान मर्यादा में , स्वार्थ में लिपटे उनके अरमानो का?

ये सूनापन ये रीतापन

काम है , आराम है.
थोड़ा नाम है , थोड़ा बदनाम हैं.
वक़्त पे खाना , वक़्त पे सोना
कुछ कम है तो कुछ ज्यादा भी है.
कुछ कर चुके , कुछ करने का इरादा भी है.
डर है , हौसला भी है.
बहुत कुछ पास है , कुछ से फासला भी है
खुशियाँ हैं तो कहीं मातम भी है.
सांस चल रही हैं
ज़िन्दगी बढ़ रही है.
देखता हूँ , लगता है जैसे
जिंदगी जहाँ से चली थी उसी ओर बढ़ रही है.
जब तक दम है ..हम हैं .
सब कुछ होते हुए भी
एक सूनापन , एक रीतापन भी है ।
ये सूनापन पहले असहज कर देता था
फिर उधेलित करने लगा
फिर सोचने पर मजबूर करने लगा
अब सोचता हूँ , तो जानता हूँ
यहाँ कुछ भी पूरा नहीं है , सब अधुरा है
ये सूनापन ये रीतापन एक वजह है
ज़िन्दगी को एक नयी दिशा देने के लिए
ये वो इशारा है जो दिखता है एक रास्ता
जीवन के अंतिम सत्य ,मृत्यु का
निर्वाण का , मोक्ष का .
ये सूनापन ..ये रीतापन जब आये जीवन में
तुम भी सोचना , और निकल पड़ना
एक नयी राह पर .. उस ओर
जो अनदेखा है , अन्जाना है
शायद तुमको मिल जाये।

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

मुझे ये याद रहता है जो मुझको भूल जाना है।

काश भूलना आसान होता
जब भी कोशिश करता हूँ ,
मुझे ये याद रहता है जो मुझको भूल जाना है।

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

प्रेमचंद कौन है ? उसका बायोडाटा लाओ.


प्रेमचंद कौन है ? उसका बायोडाटा लाओ.

सिगरेट का झल्ला उड़ाती . ब्रांडेड इतर में महकती , लहराती हुयी वो आती है , अंग्रेजी बोलती है ऐसे जैसे हिंदुस्तान से उसका कुछ लेने देना नहीं है. .. माहोल को खुशनुमा और आरामदेह कैसे बनाना है उसे बहुत अच्छे से आता है... साथ ही अपना रुतबा कैसे दिखाना है वो बखूबी जानती है... और आपको ये बताना नहीं भूलती की उसने बड़ी मुश्किल से वक़्त निकला है... सारी दुनिया का काम उसी के ऊपर है. नपे तुले शब्दों और बीच बीच में मजाक करते हुए आपको छोटा दिखाने में उसे महारत हासिल है. ..बड़े से बड़े आत्मविश्वासी को चित करना उसके बाएं हाथ का खेल है... अपनी कजरारी आँखों से एक बार घूर के देख लेती है ..आपकी नज़रों से नज़रे नहीं हटाती और सामने वाला उसकी हाँ में हाँ मिलाये जाता है...दिमाग और दिल को गुलाम बना लेने में माहिर खिलाडी है वो...

उसके हाथ में हिंदुस्तान की जनता को क्या देखना चाहिए और क्या नहीं...इतना बड़ा फैसला लेना का अधिकार है... ये विदेशी चैनल में बैठी एक हिन्दुस्तानी लड़की है ... जिसे कंटेंट हेड के नाम से लोग जानते हैं ... आज मिस्टर एक्स वाई जेड , एक बेहतरीन लेखक है , उनकी इस लड़की के साथ मीटिंग है... थोड़ी बहुत इधर उधर की बातें और फिर लड़की पूछती है , कहानी क्या है... ? कहानी सुनानी अंग्रेजी में है ..बनेगी हिंदी में ... मिस्टर एक्स वाई जेड कहानी सुनाते हैं .. बीच बीच में वो बोलती जाती है.. उसे कहानी बहुत अच्छी नहीं लग रही ..क्यूंकि उसे चाहिए कुछ हटके ... चाहे नाटक की नायिका की पच्चास शादियाँ क्यूँ न दिखानी हो... अचानक वो बीच में कुछ बोल पड़ती है , लेखक समझ जाता है और अपनी कहानी का वजन बढ़ाने के लिए बोल पड़ता है... वो जनता है , कहानी बेचने के लिए क्या ट्रिक इस्तेमाल करनी है...वो बोलता है.. मैडम हमारी कहानी , प्रेमचंद की कहानी से इंस्पायर है... लड़की एक दम से उन्हें रोक देती है... उन्हें समझ नहीं आता क्यूँ? मैं बताता हूँ ... वो बोलती है , कि ये प्रेमचंद कौन है? लेखक कुछ बोले कि वो बोलती है उसका बायोडाटा लाओ... लेखक अवाक रह जाता है .. लेकिन बोलता नहीं... वो बोलती है ... टेल मी हु इज प्रेमचंद? लेखक - वो हमारे देश के महान उपन्यासकार हैं... कहानी सम्राट हैं... लड़की ..ओह आई सी ... आप उसका बायोडाटा लगा दो... प्रोजेक्ट उम्दा हो जायेगा... लेखक अपनी दाल रोटी चलाने के चक्कर में चुप है , लेकिन इतना भी गिरा नहीं है की वो प्रेमचंद का अपमान सहता ..उठ जाता है .. और बस दो टुक बोलता है ... माफ़ करना ये कहानी आपके चैनल के लिए बेकार है.... लड़की को अच्छा नहीं लगता... उसकी अदाएं जाहिर करती हैं , कि आपकी एंट्री इस चैनल में बंद समझिये...लेखक उठ कर चला जाता है...

सेट पर शूटिंग चल रही है... बाईस साल कि एक सुन्दर सी लड़की सेट पर आती है.. डिरेक्टर को बुलाती है... दोनों हाथ मिलाते हैं... लड़की शूटिंग का हाल चाल पूछते हुए सिगरेट जला लेती है... शुद्ध अंग्रेजी में बोलती है... आपको सीन समझ में आ गए हैं न... ? डिरेक्टर हाँ में जवाब देता है.. लड़की बोलती है... हेरोइन और हीरो के कपडे के बारे में... सेट के पर्दों और फर्नीचर के रंगों के बारे में .डिरेक्टर का दिमाग चकरा रहा है... कहानी , सीन में क्या होगा उस से उसे कुछ लेना देना नहीं है..और वो आई है सीन समझाने के लिए .. हाँ हाँ करता हुआ डिरेक्टर उसके जाने का इंतज़ार करता है ..लेकिन वो बैठ जाती है...सीन शुरू होता है... डिरेक्टर के कट बोलने से पहले ही वो कट बोल देती है... इसलिए कि लड़की के हेयर स्टाइल ठीक नहीं है... डिरेक्टर अन्दर जाता है... अपने बैग से शराब कि एक बोतल निकलता है , निगलता है.. अपने असिस्टेंट को बुलाता है.. उसे गलियां देता है... और फिर शूटिंग शुरू हो जाती है...

करोडो रुपये कि छतरी लगा कर ..देश में धंदा करने वाले चैनल में ऐसे लोग काम करते हैं... जिन्हें हिंदी कि समझ नहीं , वो हिंदी का नाटक बनाते हैं... ये निर्धारित करते हैं कि हिंदी भाषा बोलने वाली जनता को क्या दिखाना है.. जिन्हें पता नहीं भारतीय संस्कृति क्या है , वो हमे बताते हैं कि हमे क्या देखना है... प्रेमचंद का बायोडाटा मांगने वाली लड़की चैनल का कंटेंट डिसाईड करती है ... मीडिया एक बहुत ताकतवर माध्यम है और उस पर ऐसे ही लोगों का कब्ज़ा है ..अब आप समझ सकते हैं .. हमारे समाज कि थाली में क्या परोसा जायेगा...इसका असर दिखने में वक़्त नहीं लगता... ज़रा संभल के... टी आर पी के चक्कर में तो हद्द ही हो गयी है... न्यूज़ चैनल का तो और भी बुरा हाल है... ये रिपोर्टिंग कि जगह review ज्यादा करते हैं और वो भी टी आर पी दिमाग में रख कर...उन्हें इस से कोई सरोकार नहीं उनकी खबर का क्या होगा असर...

सच कहूँ .. अगर एक सिरफिरा कहे कि मुझे एक atom बोम्ब दे दो मैं देश को गुलाम बना दूंगा ..मैं नहीं मानुगा... लेकिन कोई सिरफिरा कहे कि मुझे अपने देश का मीडिया दे दो... तो मुझे कोई शक नहीं , कि देश को गुलाम बनाने , देश को युद्ध के दलदल में ले जाने में उसे ज़रा भी परेशानी नहीं होगी... हमारी सोच पर कब्ज़ा करती है ये मीडिया ... और सोच गुलाम हुयी तो कुछ भी हो सकता है...

प्रेमचंद का बायोडाटा मांगने वाली , और हिंदी कहानी में सिर्फ कपड़ो का रंग देखने वाली लड़कियों से सावधान .... देश भक्ति के नाम पर , कभी भावनायों के नाम पर आपको गुमराह करने वाले न्यूज़ चैनल से सावधान ... इन पर लगाम नहीं लगायी गयी तो ...आप सोचते रहिये...आपका बच्चा कल लय गुल खिलायेगा...

रविवार, 17 अक्टूबर 2010

आप सबको विजयदशमी की शुभकामनाये ...



आप सबको विजयदशमी की शुभकामनाये ...

मर्यादा पुरोषोत्तम श्री राम ने आज ब्रहमज्ञानी तेजस्वी त्रिलोक विजयी महाप्रतापी रावण के अहंकार और उसके भीतर के राक्षस का वध किया था. मुझे लगता है हमे भी रावण दहन और उस महा पंडित के विनाश को इसी रूप में लेना चाहिए. हर इन्सान के अन्दर एक रावण है , एक अहंकारी दानव है. एक अत्याचारी है . जिसका दमन हमे स्वयम करना चाहिए.
ये तस्वीर जो मैंने लगायी है , ये कालोनी के हर तबके के बच्चे के प्रयास , प्रेम और सदभावना का प्रतिक है . इन बच्चों ने खुद मिलकर इसे बनाया है. कौन किस जात का है, आमिर है गरीब है , उसका क्या मजहब है इन्हें नहीं पता. इन्हें रावण बनाने से मतलब है. साथ बैठ कर खुशियाँ मनाने से मतलब है. इन बच्चों ने मिलकर अपने नन्हे हाथों से ये रावण का पुतला बनाया है. इनके साथ एक तश्वीर मैं भी खीचना चाहता हूँ..आज शाम ज़रूर जाऊंगा . ये असली हीरो हैं ..और हमारी उमीद हैं. इनका प्यार , इनका प्रयास , इनकी सदभावना हम बड़े लोगों को ठेंगा दिखाती है , जात पात पे लड़ने वालो को जीभ चिडाती है.

शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

मुबारक हो


मेरे उप-सहायक परवीन (तस्वीर में जो लड़का नोट बुक लिए खड़ा है ) अभी खबर आई है, कि उसे फिल्म डिरेक्ट करने के लिए मिल गयी है। बहुत ख़ुशी हुयी । मुबारक हो परवीन ।

तेरा मेरा कैसा रिश्ता

तेरा मेरा कैसा रिश्ता
बहती - बहती सरिता जैसा ।
रस्ते -रस्ते साथ रहा पर
कभी न ठहरा दरिया जैसा ।

हर बार तुझे मिटाता हूँ, हर बार तू बन जाती है।

तुझको बनाना भी मुश्किल था , मिटाना भी मुश्किल है।
हर बार तुझे मिटाता हूँ, हर बार तू बन जाती है।

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

फूल नहीं हूँ खुशबू हूँ मैं।
आँधियों से कह दो औकात में रहें।

दर्द की फसल

उग आई है दर्द की फसल
लगेगी उन पे अब अच्छी ग़ज़ल ।

मचलते हुए आंसू हँसेंगे
अब दिल जायेगा बहल।

बंद कर कमरा आनंद
सारी दुनिया में टहल।

कहो आनंद

कहो कहाँ घुमने गए थे आनंद ।
कौन सी मंजिल चूमने गए थे आनंद।

डूबे हैं तुम्हारी थाह में कितने।
तुम कौन से सागर में डूबने गए थे आनंद।

आज में बैठे बैठे कल और परसों ।
क्या उसके दर भी घुमने गए थे आनंद।

दिन का उजाला भर के अँधेरी रात में
कौन सा ख्वाब ढूंढने गए थे आनंद।

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

उफ़… ये मजहब …क्या फ़ायदा इसका जो इंसान को इंसान नहीं रहने देता… राम वाला अल्लाह नहीं कहने देता..अल्लाह वाला राम नहीं कहने देता… अजब मजहब है इंसान को इंसान नहीं रहने देता…

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

प्रेम प्याला

प्याले प्रेम के पी लो , मैं बेमोल देता हूँ।
लुटता हूँ हंसी और आंसूं मोल लेता हूँ।

बहुत कडवी हो जाती है ज़िन्दगी जब उजालो में
मैं चुपके से उस में अँधेरा घोल देता हूँ।

बंद होते ही दुनिया के सारे दरवाज़े
मैं अपने घर के दरवाज़े- खिड़की खोल देता हूँ।

मेरे खामोश रहने की वजह है बड़ी यारो
बड़ा बवाल होता है, मैं जो सच बोल देता हूँ।

हर हाल में दिल मेरा एक सा ही रहता है
ख़ुशी गम को अब एक साथ तौल देता हूँ।

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

मेरी पहचान


मुन्ना की अम्मा या बंटी की मम्मी

रामदीन की लुगाई या mrs शर्मा

पंडितजी की बहु या बिज़नस tycoon कपूर साहब की daughter in-law.

किसी की बहन

किसी की बेटी

किसी की बीवी

किसी की माँ

सोचती हूँ कहाँ है मेरी पहचान ...?

कहीं चूल्हे चाकी में दिन गुजारती हूँ

और कहीं ..vacuum cleaner और washing machine में

साड़ी से निकल कर पतलून भी पहन ली

लेकिन क्या अपने वजूद से लिपटी उस पुरानी सोच को उतार पायीं हूँ?

जो मुझे मेरी खुद की पहचान नहीं बनाने देता ....?

गुडिया आजा ..बिटिया आजा .. बहु आजा

बासी -बासी सी ज़िन्दगी ... न कोई उमंग ..न कोई ताज़गी ...

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

अमन में मेरा हिंदुस्तान रहे

इस देश में जब जिसके हाथ ताक़त आई उसने राज किया । ये सिर्फ हमारे देश की कहानी नहीं है , सारी दुनिया का यही इतिहास है। अयोध्या में मंदिर था या मस्जिद था , कब क्या था , कोई दावे से कह नहीं सकता। किसी के पास कोई सबूत नहीं है। लेकिन इतिहास में मैंने तो आज तक ऐसा नहीं पढ़ा की किसी हिन्दू ने मस्जिद पे कब्ज़ा किया हो। या उसे गिरा कर मंदिर बना दिया हो। इतिहास में मैंने ये ज़रूर पढ़ा है की मुग़ल शाशकों ने ये घिनोना काम किया। मेरे यह कहने का मतलब कतई नहीं है की मैं ये कह रहा हूँ , की वहां मंदिर गिरा कर मस्जिद बनाया गया। या मस्जिद गिरा कर मंदिर बनाने की कोशिश हुयी। सिर्फ ये कहना चाहता हूँ , की किसी को कुछ पता नहीं। कोई ये साबित भी नहीं कर पाया। और अगर हम में से किसी को लगता है , कि अमन के लिए फैसला इन्साफ नहीं , तो ये सच है। लेकिन हम कह भर सकते हैं, क्यूंकि हम कहने वालों के पास भी कोई पका सबूत नहीं है। इस में कोई दो राय नहीं है कि , फैसला इन्साफ नहीं था, एक समझौता है। अमन के नाम पर। इस में न्याय कि जीत नहीं हुयी। इस फैसले से देश में अमन बनाये रखने में कामयाबी मिली। न्यायपालिका ने एक अच्छा फैसला लिया , जो देश कि शान्ति के लिए ज़रूरी था, लेकिन ध्यान रखना होगा , कि और मामलो में ऐसे फासले न दिए जाएँ। ये कानून कि हार होगी।

वैसे मैं अयोध्या मामले और ऐसे मंदिर मस्जिद के नाम पर होने वाले झगड़ों के लिए बस इतना कहूँगा और पूछुंगा कि आप क्या सोचते हैं?

अमन में मेरा हिंदुस्तान रहे

ना राम रहे न अलाह रहे।
जिनको रखना हो , वो अपने दिल में अपना भगवान रखें।
ये धरती है इंसानों की, यहाँ सिर्फ इन्सान रहे।
प्रेम का मजहब रहे।
अमन में मेरा हिंदुस्तान रहे।

१९९२ से न तो वहां मंदिर हैं, न वहां मस्जिद है। हिंदुस्तान की अवाम को कोई फर्क नहीं पड़ा। इस दुनिया में अगर कहीं मंदिर , मस्जिद, गुरद्वारा, गिरजा घर न हो , तब भी इन्सान को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। फर्क तब पड़ता है, जब अमन चला जाता है। जब नफरत की हवा जहर घोलती है। गरीबों का खुदा एक रोटी में बंद हैउसकी मेहनत मजदूरी उसकी पूजा हैशाम को घर में जलता चूल्हा उसका हवन हैऔर उसके बच्चों के मुह में जाने वाला निवाला उसका प्रसाद हैकहीं मंदिर हो या हो, कहीं मस्जिद हो या होउसे कोई फर्क नहीं पड़ता

ढह जाएँ जब मासूमो के घर , तब मंदिर की नीव पड़े ।
माँ का दूध सूख जाए तब ईद की खीर बने ।

ऐसे मंदिर मस्जिद नहीं चाहिए हम इंसानों को ।

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

अमन में मेरा हिंदुस्तान रहे

ना राम रहे न अलाह रहे।
जिनको रखना हो , वो अपने दिल में अपना भगवान रखें।
ये धरती है इंसानों की, यहाँ सिर्फ इन्सान रहे।
प्रेम का मजहब रहे, अमन में मेरा हिंदुस्तान रहे।

१९९२ से न तो वहां मंदिर हैं, न वहां मस्जिद है। हिंदुस्तान की अवाम को कोई फर्क नहीं पड़ा। इस दुनिया में अगर कहीं मंदिर , मस्जिद, गुरद्वारा, गिरजा घर न हो , तब भी इन्सान को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। फर्क तब पड़ता है, जब अमन चला जाता है। जब नफरत की हवा जहर घोलती है।

ढह जाएँ जब मासूमो के घर , तब मंदिर की नीव पड़े ।
माँ का दूध सूख जाए तब ईद की खीर बने ।

ऐसे मंदिर मस्जिद नहीं चाहिए हम इंसानों को ।

मंगलवार, 28 सितंबर 2010


ये फोटो विवेक अग्ग्निहोत्री जी ने अपने बिग ब्लॉग पर मीडिया की धुनाई करते हुयी लगायी है। न्यूज़ का स्तर क्या है अब आप समझ जायेंगे।

सोमवार, 27 सितंबर 2010

हम हैं अगर कल , तो देखो इसी पल, भारत का हमको भविष्य बताओ

ये मेरी फिल्म बोरीवली फास्ट का एक गीत है। अभी इसकी धुन और म्यूजिक तैयार हो रही है। जो गीत आप सुनेगे फाइनल नहीं है। अभी गायक भी फाईनल नहीं है । आप चाहें तो सुझाव दे सकते हैं। गीत के बोल बहुत से सवाल करते हैं... जिसका जवाब सबको सोचना होगा। presentation की क्लिप के साथ ये विडियो मैंने आप सब के लिए बना दी है। उम्मीद है आप सबको अच्छा लगेगा। आपके सुझाव आमंत्रित हैं।

सलामी


Everyone celebrates Birthday of Gandhi ji on 2nd Oct.

27th Sept 1907 is Birthday of Saheed Bhagat Singh

does anybody know that?

at least pass this message to everyone , let the real hero be respected.

रविवार, 26 सितंबर 2010

मैं कौन हूँ?

मैं कौन हूँ? मेरा अश्तितव क्या है?
ये सवाल कल भी था , जो आज है।
मैं खोजता हूँ , भला ये क्या राज है?
अजीब लगता है, दुनिया को जानने वाला इंसान
खुद से क्यूँ अनजान है?

मैं खोजता हूँ , खुद को धरती में , आकाश में।
ज़रे ज़रे में पातळ में।
मैं खोजता हूँ खुद को
इस शारीर के मकान में ।

मैं अजन्मा था तो कैसा था - क्या था?
मेरा चेहरा , मेरा शारीर याद करता हूँ।
यात्रा शुरू होती है, खोज शुरू होती है।
माँ के पेट से पहले और माँ के पेट से लेकर आज तक ।
मगर मैं पहुँच न पाया इस राज तक।

इस खोजी अभियान में ,
सोचता हूँ परेशां मैं ।
फिर एक दिन मैं भी डूबा ध्यान में।
और जागने के क्रम में।
सत्य के सामने देखा ,हूँ अज्ञान मैं ।
धीरे धीरे जाग रहा हूँ। अधखुली आँखों से देख रहा हूँ।
अपने आप को जान रहा हूँ।
मेरा कोई नाम नहीं है।
कोई शारीर नहीं, कोई चेहरा नहीं।
मेरा कोई काम नहीं है।
जो मैं सबको दीखता हूँ ।
ये मेरी पहचान नहीं है।
मैं खुद को जहाँ पता हूँ , बस लगता है ,
मैं हूँ।
जो सुनता है इन कानो से ।
जो देखता है इन आँखों से।
मैं बस हूँ।
ये दिल ही है , जो हर गम झेल जाता है।
जो भी मिलता है, दिल से खेल जाता है।

कज़ा

आफताब आएगा तो तुम भी जान जाओगे।
शबनम हूँ मैं अपनी औकात जान गया हूँ।
रूह जब रोशन होती है ।
हजारों आफताब शर्मशार होते हैं।

उनको खोफे - रुसवाई नहीं हुआ करती।
जो अपनी नज़रों में इज्ज़तदार होते हैं।
अँधेरे कितने भी ताक़तवर क्यूँ न हों।
ज़रा सी रोशनी से मर जाते हैं।

पत्थर की मार से बच जाने वाले।
कभी कभी नाजुक फुल की मार से मर जाते हैं।
ठहरा हुआ हो आँखों में सागर तो कभी देखना।
किश्तियाँ डूबी हैं कितनी , लहरों के तूफ़ान में ।

जब कोई मरता है ख्वाब , तो लगता है यूँ ।
जल रही है ज़िन्दगी, जैसे शमशान में ।

घर बनाना भूल गए लोग अब जहाँ में।
रहने लगे है बस अब माकन में।

दीवाना आ गया

गमो को करना नगमा , और गुनगुनाना आ गया।
हर हाल में मुझको मुस्कुराना आ गया ।

ऐसी खुदा कि मुझ पे मेहर हो गयी ।
अपने आप में मुझको सामना आ गया।

अब तो अपनी मैकशी का ये हाल है ।
देखते ही लोग कहते हैं, दीवाना आ गया।

शनिवार, 11 सितंबर 2010

11 September 1893 Parliament of World's Religions

The Parliament of Religions opened on 11 September 1893 at the Art Institute of Chicago. On this day Vivekananda gave his first brief address. He represented India and Hinduism.Though initially nervous, he bowed to Saraswati, the goddess of learning and began his speech with, "Sisters and brothers of America!".To these words he got a standing ovation from a crowd of seven thousand, which lasted for two minutes. When silence was restored he began his address. He greeted the youngest of the nations in the name of "the most ancient order of monks in the world, the Vedic order of sannyasins, a religion which has taught the world both tolerance and universal acceptance." And he quoted two illustrative passages in this relation, from the Bhagavad Gita—"As the different streams having their sources in different places all mingle their water in the sea, so, O Lord, the different paths which men take, through different tendencies, various though they appear, crooked or straight, all lead to Thee!" and "Whosoever comes to Me, through whatsoever form, I reach him; all men are struggling through paths that in the end lead to Me."Despite being a short speech, it voiced the spirit of the Parliament and its sense of universality.
Dr. Barrows, the president of the Parliament said, "India, the Mother of religions was represented by Swami Vivekananda, the Orange-monk who exercised the most wonderful influence over his auditors." He attracted widespread attention in the press, which dubbed him as the "Cyclonic monk from India".

The New York Critique wrote, "He is an orator by divine right, and his strong, intelligent face in its picturesque setting of yellow and orange was hardly less interesting than those earnest words, and the rich, rhythmical utterance he gave them." The New York Herald wrote, "Vivekananda is undoubtedly the greatest figure in the Parliament of Religions. After hearing him we feel how foolish it is to send missionaries to this learned nation."

The American newspapers reported Swami Vivekananda as "the greatest figure in the parliament of religions" and "the most popular and influential man in the parliament".

He spoke several more times at the Parliament on topics related to Hinduism and Buddhism. The parliament ended on 27 September 1893. All his speeches at the Parliament had one common theme—Universality—and stressed religious tolerance.

Regards

11 September 1893 Parliament of World's Religions

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

मौत कब कहाँ कैसे आ जाए , कुछ पता नहीं।
जीवन कि लय में नाचते नाचते कब पैर रुक जाए कुछ पता नहीं।
थिरकती साँसे , धडकती धड़कन , कब थम जाए कुछ पता नहीं।

आज सुबह ११ बजे , मेरे बड़े चचेरे भाई का मासूम सा बेटा , जिसने अभी सोलवां साल भी पार नहीं किया था, ट्रेन हादसे में अपनी जान गवां बैठा। इतना वक़्त भी नहीं मिला , कि उसकी जान कि दुवा भी मांग पता। इस दर्द को समेट कर अपने अन्दर दबाये रखना मुश्किल हो गया तो लिख रहा हूँ। और सोच रहा हूँ , इंसान आखिर हर हाल में जी ही लेता है। एक बार कहीं पढ़ा था, जीवन नहीं रुकता , मेरे और आपके रुकने से क्या होता है। ये मृत्यु हमारे जीवन का आधार है। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे... जनता हूँ ये न मौसम अब रहेगा देर तक , हर घड़ी मेरा बुलावा आ रहा। ये जीवन हमेशा नहीं रहने वाला। हर जाती सांस के साथ मौत का बुलावा आ रहा है। कब , कहाँ , कैसे पता नहीं। ये दुःख जीवन के अनुराग को कम करता है। मीरा कि कहानी हमने आपने सबने सुनी है। मीरा के जीवन में बचपन से जो मौत का सिलसिला चला वो उनके पति कि मौत पर आकर रुका। कहते हैं, अपनों के खोने का दर्द समेटे मीरा , सोचती थी। जीवन का अंत यही है तो फिर इस जीवन का क्या माने? क्यूँ इस मौत कि मोहताज़ ज़िन्दगी के लिए इतनी मारा मारी। मीरा को दीवानी बनाने के पीछे सिर्फ क्रिशन कि मूर्ति वाली घटना वजह नहीं थी... उसके पीछे इस मृत्यु के सत्य का ज्ञान भी था। मीरा को जो भी प्रिय था , खो गया। मृत्यु उसे ले गयी। और मेरा को जीवन का सार समझ में आ गया। उसे समझ आ गया, कि जीवन क्षड़भंगुर है, उसे शाशवत कि तलाश करनी होगी। इस मृत्यु ने उसे प्रेम का असली मतलब समझाया । माँ में , पिता में, भाई , बहन, संगी साथी , पति सब में उससे प्रेम मिला , लेकिन उस प्रेम को एक दिन मृत्यु निगल जाने वाली थी। उसे इस सत्य का अनुभव हुआ और वो विरत प्रेम , शाशवत प्रेम कि खोज में निकल पड़ी।

मैं बहुत दुखी हूँ। मुझे उस बच्चे कि शक्ल भी याद नहीं है। उसे देखे ७ साल हो चुके हैं। मेरे भाई का परिवार नेपाल में रहता है। ७ साल पहले उसे देखा था, जब उन से मिलने गया था। जीवन कि आप धापी में वक़्त ही नहीं मिला , कि कभी चाचा बनके उसे कंधे पे खिलाता। लिखते हुए आँखें भर आती हैं। हम पढ़े लिखे काम में मगन लोगों को लगता ही नहीं जीवन समाप्ति कि तरफ बाधा जा रहा है। मोबाइल पे बात कर लेते हैं और ऐसा फील करने लगते हैं , कि कितने पास हैं... अरे अगली फलाईट से पहुँच जायेंगे... कौन सा दूर है। पैसे ने कितना बादल दिया है हमे। अब अगली फलाईट पकड़ कर क्या करने जायुं ? उससे कन्धा देने? सोचता था, वक़्त निकाल कर कल जाऊंगा..कल जाऊंगा... इस कल कल के चक्कर में हम भूल जाते हैं..काल करीब आता जा रहा है... कब किसे कहाँ , कैसे ले जायेगा पता नहीं... पता नहीं क्या क्या लिख रहा हूँ.................

शनिवार, 28 अगस्त 2010

जनता हूँ, आज रात फिर सब आयेंगे ,
बीते दिन, मीठी यादें , कडवी बातें ,
बस नींद नहीं आएगी।
खुली आँखों में सपने लेके पलकें नम हो जाएँगी।
सुबह दुनिया का दस्तूर निभाने मैं जब बहार जाऊंगा ,
मेरी आँखें देख शहर में कितनी बातें हो जाएंगी।

मेरा सम्मान


मैं दलित ,, सदियों से दबा कुचला ।
लेकिन आज सत्ता में मेरा शाशन है ।
आज राजा –रानी मेरे हैं ..मेरा ही दीवान है ।
मेरे रहनुमा करेंगे अब मेरा सम्मान
बनेगी भीमकाय मूर्तियाँ .
सजेंगी बगीचों में जल की फुलझड़ियाँ
मेरा होगा सम्मान ..बढेगा मेरा मान .
छब्बीस रुपये भी दिन में नहीं कम पता मैं ..
लेकिन छब्बीस सौ करोड़ से मेरा होगा सम्मान .
हे भारत के संविधान के रक्ष्सको ..क्यूँ रोकते हो तुम
हो जाने दो मेरा सम्मान …
मैं चाहता हूँ , मैं रहूँ या न रहूँ ..
कायम रहे इन् शिलायों में मेरी पहचान ..
बहुत ज़रूरी है बनी रहे मेरी पहचान
मेरी नस्लों को दुःख सहने की ताक़त मिलती है …
उन्हें होसला मिलता है , हो जाने को कुर्बान .
ताजमहल मुमताज़ की याद में बनाया गया था सब जानते हैं ॥
लेकिन मेरे बच्चे उससे अपने पूर्वजों के कटे हाथों का प्रतिक मानते हैं .
एक और प्रतीक बन जाने दो .. बनी रहेगी मेरी पहचान .
मैं चाहता हूँ, मेरे शोषण की कहानी जिंदा रहे
मुझ पर हुए अत्याचार का बन जाने दो निशान
मेरे उत्थान के नाम पर ये सम्मान ..
जान ले दुनिया मेरे नेता हैं महान .
जिन्हें पता नहीं मुझे ये सम्मान नहीं ...चाहिए दो मुठी अन्न का दान .
उन्हें पता नहीं …भूख से व्याकुल मेरे टंगे हैं प्राण .
झोपड़े में जलता हूँ -भीगता हूँ , नहीं है एक माकन .
क़र्ज़ में डूबा हूँ , बेटी हो गयी है जवान .
बाप बिना इलाज़ के मर गया …माँ पर भी बीमारियाँ है मेहरबान .
मेरे उठान का वादा करने कितने आये …
और शोषण कर के चले गए ॥
लेकिन मेरे अपने मेरे सम्मान के नाम पर
बना रहे हैं मेरे शोषण का निशान .
जनता हूँ , मेरी दर्दनाक आवाज़ दबा दी जाएगी
अख़बार के पन्नो से चाय की प्याली के साथ मिटा दी जाएगी
मेरे नाम पर शीश महल बनवाने वालों ..
कभी सोचा है ..उस महल को देखने आने के लिए
मेरी जेब में किराये भी नहीं हैं ..
होते तो बरोसों से इंतज़ार करती बहन को देख आया होता .
लेकिन जान लो …तुम चैन की सांस नहीं ले पाओगे एक पल भी उस आलीशान नुमाईश का …
देखना वहां … उन् मूर्तियों में
तुम्हे मेरे पसीने , मेरे लहू के मिलेंगे निशान
एक एक पत्थर में नज़र आएगा तुम्हे
मेरी बेटी के शादी के पैसे
मेरे बेटे की पढाई के पैसे
मेरी माँ की दवाई के पैसे
और मेरी कफ़न की बू आएगी ..तुम देखना मेरी शान …
चल मंगरुया …हल उठा … जोते बोयें ..करम करें …बाकी सब जाने राम जी …

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

तुझे अश्यार अच्छे लगते थे ना।
आके देख , आज गजलों की किताब हो गया हूँ।

तू उलझती थी उन् दिनों मुझे समझने में।
आके देख एक आसान सा हिसाब हो गया हूँ।

तेरे हर सवाल पे मैं रहा हमेशा खामोश।
आके देख तेरे हर सवाल का जवाब हो गया हूँ।

मुझ ज़रे को तुने ही फूंका था।
आके देख जलते जलते आफताब हो गया हूँ।
तुझे सारी रात जगाऊंगा।
मैं ख्वाब बनकर आऊंगा।

मैं वो दीवाना नहीं, भूले ज़माना जिसे।
तुम सोचोगी मुझको , मैं तुमको बहुत याद आऊंगा।

पलकों के बाँध मजबूत रखना ।
तेरी आँखों में सैलाब बन कर आऊंगा।

बुधवार, 25 अगस्त 2010

वो सर झुका के आसमां पे चला तो क्या यारों।
मैं सर उठा के ज़मी पे तो चला हूँ यारों।

महिला आरक्षण - आधुनिक नारी की योग्यता पर प्रश्नचिंह

( मैं नारीवादी हूँ, ना मेरे अन्दर नर होने का घमंड है "मैं " में नहीं "हम " में विश्वाश करने वाला जीव हूँ। मैं नारी विरोधी नहीं हूँ , लेकिन नारी के इस दृष्टीकोण का विरोधी हूँ , मैं आरक्षण विरोधी हूँ। )
आज के दौर में जहाँ नारी पुरुष से कंधे से कन्धा मिला के चल रही है। हर जगह बराबर की भागीदारी निभा रही है। कोई भी क्षेत्र नारी से अझुता नहीं रहा गया। ऐसे दौर में पढ़ी लिखीं महिलायों द्वारा आरक्षण का नारा लगाना बचकानी हरकत लगती है। जो आधुनिक नारी की योग्यता पर प्रश्नचिंह लगता है । क्या अपने आपको आधुनिक कहने वाली नारी को इतना भी ज्ञान नहीं , कि जो वो कर्म से हासिल नहीं कर सकती उसे आरक्षण हासिल करके क्या मिलेगा ? पुरुष और नारी में समानता का उसका दावा क्या हुआ? जिसके लिए वो एवरेस्ट पर भी चढ़ गयी। कहाँ गया वो स्वाभिमान? क्या उसे ये बताना पड़ेगा कि हक मांगने से नहीं मिलता, उसके काबिल बनना पड़ता है।


मैं नारीवादी हूँ, ना मेरे अन्दर नर होने का घमंड है "मैं " में नहीं "हम " में विश्वाश करने वाला जीव हूँ मैं नारी विरोधी नहीं हूँ , लेकिन नारी के इस दृष्टीकोण का विरोधी हूँ , मैं आरक्षण से विरोधी हूँ नारी का आरक्षणवादी दृष्टीकोण यह साबित करता है कि वह पुरुष कि बराबरी करने कि दौड़ में मात्र डॉक्टर , इंजिनियर , वकील ही बनकर रह गयी है। उसने उस स्वभाव को नहीं पाया जो पुरुष के स्वाभिमान और घमंड का कारण रहा है। इतिहास के पन्ने गवाही देते हैं कि बिना क़ाबलियत के चाहे वो पुरुष हो या स्त्री कुछ भी हासिल करने उसे कोई फ़ायदा नहीं हुआ भारतीय इतिहास में आरक्षण कि मांग करने वाली महिलायों को ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे , जिसे जान कर वो सोचने को मजबूर हो जाएँगी। इन्द्रा गाँधी ही अगर पढ़ी लिखी स्वतंत्र होतीं तो परिवारवाद और उनका खानदानी रुतबा उन्हें राजनीती में लेन में कामयाब तो हो जाता , लेकिन क्या वो एक मिशाल बन पातीं ? नहीं। राजनीतिज्ञों के हाथों कि कठपुतली मात्र बनी रहती , जैसे बिहार में सीधी- सादी रव्दी देवी थीं। बस एक रबर स्टंप आरक्षण से महिलायों कि ताजपोशी तो हो जाएगी। किन्तु बाकी खेल वजीरों का होगा। ठीक वैसे ही जैसे किसी सरकारी ऑफिसर कि पत्नी उसके कंपनी कि नाम मात्र कि डिरेक्टर होती है। इसलिए मैं गुज़ारिश करता हूँ कि वो अपनी सोच को बदले, शिक्षा में आरक्षण मांगो, पढो लिखो , सोच को बदलो। स्वतंत्रता हासिल करो, ताकि मानसिक विकास हो। साड़ी उतार कर पतलून पहन लेने से सोच नहीं बदलती हक नहीं मिलता। सोच बदलेगी, क़ाबलियत आएगी, तो हक कोई रोक नहीं सकता पहले नारी को काबिल बनना होगा। वो अपना हक खुद हासिल कर लेगी। शक्ति को दिशा मिल जाए तो मंजिल खुद मिल जाएगी। उससे सत्ता नहीं शिक्षा कि ज़रूरत है, कुर्सी नहीं, कलम कि आवश्कता है। स्वतंत्रता कि ज़रूरत है। आरक्षण के नाम पर उससे पता भी नहीं , कि उस के साथ कैसा खेल खेला जा रहा है। आप जान कर चौक जायेंगे , कि बहुत से प्रान्तों में जो सीटें महिलायों के लिए घोषित कर दी गयी , उन सीटों पर विधायको और मंत्रियों ने अपनी पत्नियों को खड़ा कर दिया किसी गरीब होनहार स्त्री को सीट नहीं मिली। ऐसे आरक्षण क्या फ़ायदा ? मजे कि एक और बात, बहुत से ऐसे विधायक और मंत्री शादीसुदा नहीं थे और एकांकी जीवन में खुश थे , एक रिपोट के हिसाब से उन्होंने शादी फैसला कर लिया , सिर्फ इसलिए की सीट उनके पास रहेगी, पत्नी नाम ही तो होगा। अब जब ये हाल है तोह आप अंदाज़ा लगा सकते हैं, की गरीब होनहार महिलायों के साथ क्या न्याय होगा? जाके गोनों में देखिये महिलाएं नाम के लिए मुखिया , सरपंच हैं। सत्ता पर पुरुषों ही अधिकार है। आरक्षण के नाम पर उसे हक चाहिए तो पुरषों की बराबरी का हक उसे कभी नहीं मिल पायेगा। नारी को अपना हक अपने दम पर हासिल करने की सोचनी चाहिए। आरक्षण कमजोरी की निशानी है। और क्षेत्र की तरह यहाँ भी अपनी लगन और प्रतिभा के बल पर अपना स्थान बनाना होगा। नहीं तो आरक्षण के नाम पर उसे कुर्सी मिलेगी बस। वो ऐसे ही नाम की मंत्री और नेता रह जाएगी , जैसे शादी के बाद मुना- मुन्नी की अमा और सास ससुर की बहु बनकर अपना नाम भी खो देती है। भारत की नारी , दुनिया की सर्वश्रेष्ठ नारी बन सकती है। अगर वो शिक्षित हो, स्वतन्त्र हो। उदार हो अन्यथा आरक्षण से मिला अधिकार उससे अंधकार में ही ले जायेगा। उसे अभी सोचना होगा। उसे आगे आकर पहल करने की ज़रूरत है। उसे मांगने की ज़रूरत नहीं है। उसे अपनी क़ाबलियत से हासिल कर के अपनी आधुनिक छवि को , अपनी शक्ति को सिद्ध करना होगा। अन्यथा आरक्षण आधुनिक नारी की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह होगा।


मेरी जहिनियत को मेरी मासूमियत पे हंसी आती है.

मेरी जहिनियत को अपनी मासूमियत पे हंसी आती है।
मैं कितना जज्बाती और मासूम हुआ करता था।
उन दिनों जब कड़कती सर्दी में रजाई ओढ़ते ही सोचता था,
इस रजाई को सर्दी से कौन बचाएगा?
उसी उलझन में उलझे , मैं नींद की आगोश में चला जाता था ।

शेर , हाथी , भालू , बन्दर , घर ,कलम , किताब .
हर रात तमाम खिलोनो को आपस में समेट कर चिपका के रखता था।
ये सोच कर कहीं उन्हें डर न लगे ।

मेरी ये बातें जान कर दुनिया , मुझे पागल, सरफिरा कह सकती है।
कोई मनोवैज्ञानिक इसे बीमारी करार दे सकता है।
लेकिन मैं इसे संवेदनशील हिर्दय की मासूमियत मानता हूँ।

वो मासूमियत , जो जवान हो गयी है।
अब मैं खिलोनो को नहीं समेटता ।
बिखरे जज्बातों को बटोरता हूँ।
टूटे दिलों को जोड़ता हूँ।
रिश्तों की दरारें भरता हूँ।
लेकिन ये उतना ही मुश्किल है,
जितना वो सब आसन हुआ करता था।
बेजान खिलोने एक जगह रह जाते थे।
लेकिन इन्सान प्यार से क्यूँ नहीं रहता?

आज भी जब मैं वैसी कोशिश करता हूँ ,
तो मेरी जहिनियत को मेरी मासूमियत पे हंसी आती है।